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वामन स्तुति || Vamana Stuti || Vamana Stutih

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वामन स्तुति || Vamana Stuti || Vamana Stutih

वामन स्तुति || Vamana Stuti || Vamana Stutih

अव्याद्वो वामनो यस्य कौस्तुभप्रतिबिम्बिता । 

कौतुकालोकिनी जाता जाठरीव जगत्त्रयी ॥ १॥ 

अङ्घ्रिदण्डो हरेरूर्ध्वमुत्क्षप्तो बलिनिग्रहे । 

विधिविष्टरपद्मस्य नालदण्डो मुदेऽस्तु नः ॥ २॥ 

खर्वग्रन्थिविमुक्तसन्धिविलसद्वक्षःस्फुरत्कौस्तुभं 

निर्यन्नाभिसरोजकुड्मलपुटीगम्भीरसामध्वनि ।

 पात्रावाप्तिसमुत्सुकेन बलिना सानन्दमालोकितं 

पायाद्वः क्रमवर्धमानमहिमाश्चर्यं मुरारेर्वपुः ॥ ३॥

हस्ते शस्त्रकिणाङ्कितोऽरुणविभाकिर्मीरितोरःस्थलो 

नाभिप्रेङ्खदलिर्विलोचनयुगप्रोद्भूतशीतातपः । 

बाहूर्मिश्रितवह्निरेष तदिति व्याक्षिप्यवाक्यं कवेः 

तारैरध्ययनैर्हरन्बलिमनः पायाज्जगद्वामनः ॥ ४॥

स्वस्ति स्वागतमर्थ्यहं वद विभो किं दीयतां मेदिनी 

का मात्रा मम विक्रमत्रयपदं दत्तं जलं दीयताम् । 

मा देहीत्युशनाब्रवीद्धरिरयं पात्रं किमस्मात्परं 

चेत्येवं बलिनार्चितो मखमुखे पायात्स वो वामनः ॥ ५॥ 

स्वामी सन्भुवनत्रयस्य विकृतिं नीतोऽसि किं याच्ञया 

यद्वा विश्वसृजा त्वयैव न कृतं तद्दीयतां ते कुतः । 

दानं श्रेष्ठतमाय तुभ्यमतुलं बन्धाय नो मुक्तये 

विज्ञप्तो बलिना निरुत्तरतया ह्रीतो हरिः पातु वः ॥ ६॥ 

ब्रह्माण्डच्छत्रदण्डः शतधृतिभवनाम्भोरुहो नालदण्डः

क्षोणीनौकूपदण्डः क्षरदमरसरित्पट्टिकाकेतुदण्डः । 

ज्योतिश्चक्राक्षदण्डस्त्रिभुवनविजयस्तम्भदण्डोऽङ्घ्रिदण्डः 

श्रेयस्त्रैविक्रमस्ते वितरतु विबुधद्वेषिणां कालदण्डः ॥ ७॥ 

यस्मादाक्रामतो द्यां गरुडमणिशिलाकेतुदण्डायमानात् 

आश्च्योतन्त्याबभासे सुरसरिदमला वैजयन्तीव कान्ता । 

भूमिष्ठो यस्तथान्यो भुवनगृहमहास्तम्भशोभां दधानः 

पातामेतौ पयोजोदरललिततलौ पङ्कजाक्षस्य पादौ ॥ ८॥ 

कस्त्वं ब्रह्मन्नपूर्वः क्व च तव वसतिर्याखिला ब्रह्मसृष्टिः 

कस्ते नाथो ह्यनाथः क्व स तव जनको नैव तातं स्मरामि । 

किं तेऽभीष्टं ददामि त्रिपदपरिमिता भूमिरल्पं किमेतत् 

त्रैलोक्यं भावगर्भं बलिमिदमवदद्वामनो वः स पायात् ॥ ९॥ 

इति वामनस्तुतिः समाप्ता ।

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