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विष्णु स्तवराज || Vishnu Stavaraja || Vishnustavaraja

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विष्णु स्तवराज || Vishnu Stavaraja || Vishnustavaraja

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विष्णु स्तवराज || Vishnu Stavaraja || Vishnustavaraja

योगेन सिद्धविबुधैः परिभाव्यमानं लक्ष्म्यालयं तुलसिकाचितभक्तभृङ्गम्।

प्रोत्तुङ्गरक्तनखराङ्गुलिपत्रचित्रं गंगारसं हरिपदांबुजमाश्रयेऽहम्॥१॥

गुंफन्मणिप्रचयघट्टितराजहंस- शिञ्जत्सुनूपुरयुतं पदपद्मवृन्तम् ।

पीतांबराञ्चलविलोलचलत्पताकं स्वर्णत्रिवक्रवलयञ्च हरेः स्मरामि॥२॥

जंघे सुपर्णगलनीलमणिप्रवृद्धे शोभास्पदारुणमणिद्युति चञ्चुमध्ये।

आरक्तपादतललंबन शोभमाने लोकेक्षणोत्सवकरे च हरेः स्मरामि ॥३॥

ते जानुनी मखपतेर्भुजमूलसंग- रागोत्सवावृततडिद्वसने विचित्रे।

चञ्चत्पतत्रमुखनिर्गतसामगीत- विस्तारितात्मयशसी च हरेः स्मरामि॥४॥

विष्णोः कटिं विधिकृतान्तमनोजभूमिं जीवाण्डकोशगणसंगदुकूलमध्या।

नानागुणप्रकृतिपीतविचित्रवस्त्रां ध्याये निबद्धवसनां खगपृष्ठसंस्थाम्॥५॥

शातोदरं भगवतस्त्रिवलिप्रकाश- मावर्तनाभिविकसद्विधिजन्मपद्मम्।

नाडीनदीगणरसोत्थसितान्त्रसिन्धुं ध्यायेऽण्डकोशनिलयं तनुलोमरेखम् ॥६॥

वक्षः पयोधितनयाकुचकुङ्कुमेन हारेण कौस्तुभमणिप्रभया विभातम्।

श्रीवत्सलक्ष्महरिचन्दनजप्रसून- मालोचितं भगवतः सुभगं स्मरामि॥७॥

बाहू सुवेषसदनौ वलयांगदादि- शोभास्पदौ दुरितदैत्यविनाशदक्षौ।

तौ दक्षिणौ भगवतश्च गदासुनाभ- तेजोर्ज्जितौ सुललितौ मनसा स्मरामि॥८॥

वामौ भुजौ मुररिपोर्धृतपद्मशंखौ श्यामौ करीन्द्रकरवन्मणिभूषणाढ्यौ।

रक्ताङ्गुलिप्रचयचुंबितजानुमध्यौ पद्मालयाप्रियकरौ रुचिरौ स्मरामि ॥९॥

कण्ठं मृणालममलं मुखपङ्कजस्य लेखात्रयेण वनमालिकया निवीतम्।

किं वा विमुक्तिवशमन्त्रकसत्फलस्य वृन्तं चिरं भगवतः सुभगं स्मरामि ॥१०॥

वक्त्राम्बुजं दशनहासविकासरम्यम् रक्ताधरोष्ठदलकोमलवाक्सुधाढ्यम्।

सन्माननोत्सवचलेक्षणपत्रचित्रं लोकाभिरामममलञ्च हरेः स्मरामि॥११॥

सूरात्मजावसथबन्धमितं सुनासं भ्रूपल्लवं स्थितिलयोदयकर्मदक्षम्।

कामोत्सवञ्च कमलाहृदयप्रकाशं सञ्चिन्तयामि हरिवक्त्रविलासदक्षम्॥१२॥

कर्णौ लसन्मकरकुण्डलगण्डलोलौ नानादिशां च नभसश्च विकासगेहम्।

लोलालकप्रचयचुंबनकुञ्चिताग्रौ लग्नौ हरेर्मणिकिरीटतटे स्मरामि ॥१३॥

फालं विचित्रतिलकप्रियचारुगन्ध- गोरोचनारचनया ललनाक्षिसख्यम्।

ब्रह्मैकधाममणिकान्तकिरीटजुष्टं ध्याये मनोनयनहारकमीश्वरस्य॥१४॥

श्रीवासुदेवचिकुरं कुटिलं निबद्धं नानासुगन्धिकुसुमैः स्वजनादरेण।

दीर्घं रमाहृदयगं मदनं धुनन्तं ध्यायेऽम्बुवाहरुचिरं हृदयाब्जमध्ये ॥१५॥

मेघाकारं सोमसूर्यप्रकाशं सुभ्रून्नासं शक्रचापैकमानम्।

लोकातीतं  पुण्डरीकायताक्षं विद्युच्चेलं चाश्रयेहं त्वपूर्वम् ॥१६॥

दीनं हीनं सेवया दैवगत्या पापैस्तापैः पूरितं मे शरीरम्।

लोभाक्रान्तं शोकमोहादिविद्धं कृपादृष्ट्या पाहि मां वासुदेव ॥१७॥

ये भक्त्याऽऽद्यां ध्यायमानां मनोज्ञां व्यक्तिं विष्णोः षोडशश्लोकपुष्पैः।

स्तुत्वा नत्वा पूजयित्वा विधिज्ञाः शुद्धा मुक्ता ब्रह्मसौख्यं प्रयान्ति ॥१८॥

पद्मेरितिमिदं पुण्यं शिवेन परिभाषितम्।

धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं परम् ॥१९॥

पठन्ति ये महाभागास्ते मुच्यन्तेऽम्हसोऽखिलात्।

धर्मार्थकाममोक्षाणां परत्रेह फलप्रदम् ॥२०॥

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