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गर्ग संहिता || Sri Garga Samhita || Shri Garga Samhita-3

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गर्ग संहिता || Sri Garga Samhita || Shri Garga Samhita-3

“गर्गसंहिता” नाम से एक दूसरा गन्थ भी है जो ज्योतिष ग्रन्थ है । गर्ग संहिता गर्ग मुनि की रचना है । गर्ग संहिता में मधुर श्रीकृष्णलीला परिपूर्ण है । इसमें राधाजी की माधुर्य-भाव वाली लीलाओं का वर्णन है । हम यंहा गर्ग संहिता पञ्चम अध्याय उग्रसेन और व्यास जी का संवाद बताने जा रहे हैं ! गर्ग संहिता आदि के बारे में बताने जा रहे हैं !! जय श्री सीताराम !! जय श्री हनुमान !! जय श्री दुर्गा माँ !! यदि आप अपनी कुंडली दिखा कर परामर्श लेना चाहते हो तो या किसी समस्या से निजात पाना चाहते हो तो कॉल करके या नीचे दिए लाइव चैट ( Live Chat ) से चैट करे साथ ही साथ यदि आप जन्मकुंडली, वर्षफल, या लाल किताब कुंडली भी बनवाने हेतु भी सम्पर्क करें : 9667189678 Sri Garga Samhita By Online Specialist Astrologer Acharya Pandit Lalit Trivedi.

गर्ग संहिता || Sri Garga Samhita || Shri Garga Samhita-3

विज्ञानखण्डः – पञ्चमोऽध्यायः

भक्त्युत्कर्षम् –

श्रीवेदव्यास उवाच –

वत्साघ-धेनुक-बकीबककेशिकाला- रिष्टप्रलंब-कपिबल्वल-शंखशाल्वाः ॥

वैरेण यं किमुत भक्तियुता नरेन्द्र प्रापुः परं प्रकृतिपूरुषयोः पुमांसम् ॥१॥

पूर्वासुरावतिबलौ मधुकैटभाख्यौ स्वर्णाक्षहेमकशिपू च तथापरौ च ॥

वैरं विधाय नृप रावणकुम्भकर्णौ विष्णोः किलापतुरलं परमं पदं हि ॥२॥

के के न विष्णुपदमागतवन्त आदौ प्रह्लाद-बाण-बलि-यक्ष-विभीषणाद्याः ||

सत्संगसङ्गनिरता बहुमानपात्र- श्रीमत्पदाब्जमकरन्दरजोविलुब्धाः ॥३॥ 

देवर्षिगीष्पतिवसिष्ठपराशराद्याः साङ्ख्यायनासितशुकाः सनकादयश्च ॥

निष्कारणा भुवि चरन्त्यरविन्दनेत्र- पादारविन्दमकरन्दमिलिन्दमुख्याः ॥४॥

यत्युत्कालाङ्गभरतार्जुनमैथिलाश्च गाधिप्रियव्रतयदुप्रमुखांबरीषा ॥

निष्कारणाः परमहंसवराश्चारन्ति श्रीकृष्णचन्द्रचरितामृतपानमत्ताः ॥५॥ 

मन्दोदरी च शबरी च मतङ्गशिष्या- स्तारा तथात्रिवनिता निपुणा त्वहल्या ॥

कुन्ती तथा द्रुपदराजसुता सुभक्ता एताः परं परमहंससमाः प्रसिद्धाः ॥६॥

सुग्रीववालिसुतवातसुतर्क्षराज- नागारिगृध्रवरकाकभुशुण्डिमुख्याः ॥

कुब्जादिवायकसुदामगुहादायोऽन्ये तत्सङ्गमेत्य हरिभक्तवरा बभूवुः ॥७॥

कृष्णं न रोधयति धर्म तपो न योगः साङ्ख्यं न यज्ञ उत तीर्थयमव्रतानि ॥

छन्दांसि पूर्तनियमावथ दक्षिणा च नेष्टं न दानमथ भक्तिमृते न कश्चित् ॥८॥

यज्ञव्रताध्ययनतीर्थतपोनियोगै- रिष्टस्वधर्मनियमादिकसाङ्ख्ययोगैः ॥

यत्प्राप्यते तदखिलं भवतीह भक्त्या भक्तेःपदं हि कर्हिचिन्न भवेत्किलैभिः ॥९॥

उद्धारिणी यमपुरस्य च विश्वरूपा- दुत्तारिणी भवमहार्णववारिवेगात् ॥

संहारिणी विषयसञ्चितकर्मणा च सत्कारिणी हरिपदस्य परात्परस्य ॥१०॥

श्रीकृष्णदर्शनरसोत्सुकभावराज- दुद्यद्वसन्तपरमोत्सवपञ्चमीयम् ॥

दिव्या लतातिफलपल्लवभारनम्रा संराजते हि सततं कुसुमाकरस्य ॥११॥

संमोहकालघनमध्यतडित्स्फुरन्ती शास्त्रार्थदर्शवचसां पददीपिकेयम् ॥

दीपावलिर्विजयते जयकार्तिकस्य जेतुं गुणान् विजयिनो दशमी जयस्य ॥१२॥

साङ्ख्यं च योग इति पार्श्वगते हि दण्डे कीलानि चात्र शतशो गुणभावभेदाः ॥

अस्या क्रमान्नवकथाश्रवणादयश्च श्रेणीयमस्ति सरला भगवत्पदस्य ॥१३॥

इति श्रीगर्गसंहितायां विज्ञानखण्डे श्रीव्यासोग्रसेनसंवादे भक्त्युत्कर्षवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥

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