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गुरुवातपुरनाथपञ्चरत्न स्तोत्रम् || Guruvatapuranatha Pancharatna Stotram || Guruvatapuranatha Pancharatna Stotra

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श्री गुरुवातपुरनाथपञ्चरत्न स्तोत्रम् || Sri Guruvatapuranatha Pancharatna Stotram

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श्री गुरुवातपुरनाथपञ्चरत्न स्तोत्रम् || Sri Guruvatapuranatha Pancharatna Stotram

आदित्यादिप्रभृतिकमिदं चक्षुराद्यं च तेजो,

ज्ञानाज्ञाने स्फुरितमखिलं येन नित्यं विभाति ।

तत्तादृक्षे सकलवचनागोचरे स्वप्रकाशे त्वद्रूपेऽ,

स्मिन् किमिव कथये वातगेहाधिनाथ ॥ १ ॥

आकाशान्तं जगदखिलमप्यंशमात्रं यदीयं,

माया सेयं मरुदधिपते त्वत्स्वरूपैकदेशे ।

स त्वं कोणे क्वचन धरणेस्तिष्ठसे देहधारी,

कारुण्यं ते जगति कथये नाथ तादृक् कथं वा ॥ २ ॥

दृश्यं सर्वं वरद भवतो देह इत्यामनन्त्यां,

श्रुत्यां सत्यामपि बत नृणां जायते नैव बुद्धिः ।

इत्थंकारं कमपिच नवं कल्पयन् देहभेदम्,

भासि स्पष्टं तदपि भगवन् भाग्यहीनो जनोऽयम् ॥ ३ ॥

मर्त्यामर्त्यप्रमुखमखिलं क्षेत्रजातं त्वदीया,

मायैव श्रीगुरुपुरपते साऽपि नास्ति त्वदन्या ।

एको देवस्त्वमसि सकलक्षेत्र साक्षी चिदात्मा,

तत्वं किञ्चित् पृथगिह विभो त्वां विना नैव जाने ॥ ४ ॥

सद्रूपाढ्यं भवति भवताऽधिष्ठितं सर्वमेतत्,

भानं नाम क्वचिदपि जडे नो भवन्तं विनाऽन्यम् ।

प्रेम श्रीमन् जगति भवति त्वत्प्रतिच्छाययाऽस्मिन्,

वातेशासावहमपि भवान् सच्चिदानन्दरूपः ॥ ५ ॥

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