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दुर्गा सप्तशती प्रधानिक रहस्यम् || Durga Saptashati Pradhanikam Rahasyam
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दुर्गा सप्तशती प्रधानिक रहस्यम् || Durga Saptashati Pradhanikam Rahasyam
ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नरायणा ऋषि:अनुष्टुप्छन्दः ,
महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्त्यर्थं जपे विनियोगः।
राजोवाच
भगवन्नवतारा मे चण्डिकायास्त्वयोदिताः।
एतेषां प्रकृतिम ब्रह्मन् प्रधानं वक्तुमर्हसि॥१॥
आराध्यं यन्मया देव्याः स्वरुपं येन च द्विज।
विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥२॥
ऋषिरुवाच
इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते।
भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥३॥
सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्र्वरी।
लक्ष्यालक्ष्यस्वरुपा सा व्याप्त कृत्स्नं व्यवस्थिता॥४॥
माअतुलुङ्ग गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती।
नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥५॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा।
शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा॥६॥
शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्र्वरी।
बभार परमं रुपं तमसा केवलेन हि॥७॥
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सा भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कतवरानना।
विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा॥८॥
खङ्गपात्राशिरःखेटैरलंकृतचतुर्भुजा।
कबन्ध्हारं शिरसा बिभ्राणा हि शिरःस्त्रजम्॥९॥
सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रम्दोत्तमा।
नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नमः॥१०॥
तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमदोत्तमाम्।
ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते॥११॥
महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा।
निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया॥१२॥
इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभिः।
एभिः कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्र्नुते सुखम्॥१३॥
अक्षमालाङ्कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी।
सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ॥१५॥
तामित्युक्त्व महालक्ष्मीः स्वरुपमपरं नृप।
सत्त्वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ॥१४॥
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अक्षमालाङ्कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी।
सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ॥१५॥
महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती।
आर्या ब्राम्ही कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्र्वरी॥१६॥
अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीम्।
युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरुपतः॥१७॥
इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मीः ससर्ज मिथुनं स्वयम्।
हिरण्यगर्भो रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ॥१८॥
ब्रह्मन् विधे विरित्र्चेति धातरित्याह तं नरम्।
श्री: पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम्॥१९॥
महाकाली भारती च मिथुने सृजतः सह।
एतयोरपि रुपाणि नामानि च वदामि ते॥२०॥
नीलकण्ठं रक्तबाहुं श्वेताड्गं चन्द्रशेखरम्।
जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम्॥२१॥
स रुद्रः शंकरः स्थाणुः कपर्दी च त्रिलोचनः।
त्रयी विद्या क्स्स्मधेनुः सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा॥२२॥
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सरस्वती स्त्रियं गौरीं कृष्णं च पुरुषं नृप।
जनयामास नामानि तयोरपि वदामि ते॥२३॥
विष्णुः कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दनः।
उमा गौरी सतीचण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा॥२४॥
एवं युवतयः सद्यः पुरुषत्वं प्रपेदिरे।
चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेऽतद्विदो जनाः॥२५॥
ब्रह्मणे प्रददौ पत्नीं महालक्ष्मीनृप त्रयीम्।
रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम्॥२६॥
स्वरया सह सम्भूय विरिञ्चोऽण्डमजीजनत्।
बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान्॥२७॥
अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप।
महाभूतात्मकं सर्वं जगतस्थावरजड्ग्मम्॥२८॥
पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशवः।
संजहार जगत्सर्वं सह गौर्या महेश्वरः॥२९॥
महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्वमयीश्र्वरी।
निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्॥३०॥
नामान्तरैर्निरुप्यैषा नाम्ना नान्येन केनचित्॥ ॐ॥३१॥
॥ इति प्राधानिकं रहस्यं सम्पूर्णम् ॥
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