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अभिलाषाष्टक || Abhilasha Ashtakam || Abhilashashtakam

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अभिलाषाष्टक || Abhilasha Ashtakam || Abhilashashtakam

कदा पक्षीन्द्रांसोपरिगतमजं कञ्जनयनं,

रमासंश्लिष्टांगं गगनरुचमापीतवसनम् ।

गदाशंखांभोजारिवरकरमालोक्य सुचिरं,

गमिष्यत्येतन्मे ननु सफलतां नेत्रयुगलम् ॥१॥

कदा क्षीराब्ध्यन्तः सुरतरुवनान्तर्मणिमये,

समासीनं पीठे जलधितनयालिङ्गिततनुम्।

स्तुतं देवैर्नित्यं मुनिवरकदंबैरभिनुतं,

स्तवैः संस्तोष्यामि श्रुतिवचनगर्भैर्सुरगुरुम्॥२॥

कदा मामाभीतं भवजलधितस्तापसतनुं,

गतारागं गंगातटगिरिगुहावाससदनम्।

लपन्तं हे विष्णो सुरवर रमेशेति सततं,

समभ्येत्योदारं कमलनयनो वक्ष्यति वचः ॥३॥

कदा मे हृत्पद्मे भ्रमर इव पद्मे प्रतिवसन्,

सदा ध्यानाभ्यासादनिशमुपहूतो विभुरसौ।

स्फुरज्ज्योतीरूपो रविरिव रमासेव्यचरणो,

हरिष्यत्यज्ञानाज्जनिततिमिरं तूर्णमखिलम् ॥४॥

कदा  मे भोगाशा निबिडभवपाशादुपरतं,

तपःशुद्धं बुद्धं गुरुवचनतोदैरचपलम् ।

मनो मौनं कृत्वा हरिचरणयोश्चारु सुचिरं,

स्थितिं स्थाणुप्रायां भवभयहरां यास्यति वराम् ॥५॥

कदामे संरुद्धाखिलकरणजालस्य परितो,

जिताशेषप्राणानिलपरिकरस्य प्रजपतः।

सदोङ्कारं चित्तं  हरिपदसारोजे धृतवतः,

समेष्यत्युल्लासं मुहुरखिलरोमावलिरियम् ॥६॥

कदा प्रारब्धान्ते परिशिथिलतां गच्छति शनैः,

शरीरे चाक्षौघेप्युपरतवति प्राणपवने।

वदत्यूर्ध्वं शश्वन्मम वदनकुञ्जे मुहुरहो,

करिष्यत्यावासं हरिरिति पदं पावनतमम् ॥७॥

कदा हित्वा जीर्णां त्वचमिव भुजंगस्तनुमिमां,

चतुर्बाहुश्चक्रांबुजदरकरः पीतवसनः,

घनश्यामो दूतैर्गगनगतिनीतो नतिवरै,

र्गमिष्यामीशस्यान्तिकमखिलदुःखान्तकमिति ॥८॥

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