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श्री षोडश महागणपति स्तुति माला || Sri Shodasha Maha Ganapati Stuti Mala
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श्री षोडश महागणपति स्तुति माला || Sri Shodasha Maha Ganapati Stuti Mala
बालस्तरुणभक्तौ च वीरश्शक्तिध्वजस्तथा ।
सिद्धिरुच्छिष्टविघ्नेशः क्षिप्राहेरंबनायकः ॥ १ ॥
लक्ष्मीगणो महाविघ्नो विजयः कल्पहस्तकः ।
ऊर्ध्वविघ्नेशपर्यन्ताः षोडशैते गणाधिपाः ॥ २ ॥
धर्ममर्थं च कामं च लभते यत्प्रसादतः ।
स्तोत्रं तद्विघ्नराजस्य कथ्यते षोडशात्मकम् ॥ ३ ॥
करस्थकदलीचूतपनसेक्षुकमोदकम् ।
बालसूर्यप्रभं देवं वन्दे बालगणाधिपम् ॥ ४ ॥
पाशांकुशापूपकपित्थजंबू-फलं तिलान् वेणुमपि स्वहस्तैः ।
धत्ते सदा यस्तरुणारुणाभः पायात् स युष्मान् तरुणो गणेशः ॥ ५ ॥
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नालिकेराम्रकदलीगुडपायसधारिणम् ।
शरच्चंद्राभवपुषं भजे भक्तगणाधिपम् ॥ ६ ॥
वेतालशक्तिशरकार्मुकचर्मखड्ग-खट्वांगमुद्गरगदांकुशनागपाशान् ।
शूलं च कुन्तपरशुध्वजमुद्वहन्तं वीरं गणेशमरुणं सततं स्मरामि ॥ ७ ॥
आलिंग्य देवीं हरितां निषण्णं परस्परस्पृष्टकटीनिवेशम् ।
संध्यारुणं पाशसृणीवहन्तं भयापहं शक्तिगणेशमीडे ॥ ८ ॥
यः पुस्तकाक्षगुणदण्डकमण्डलुश्री-निर्वर्त्यमान करभूषणमिन्दुवर्णम् ।
स्तंबेरमाननचतुष्टयशोभमानं नित्यं स्मरेत् ध्वजगणाधिपतिं स धन्यः ॥ ९ ॥
पक्वचूतफलकल्पमंजरीं इक्षुदण्डतिलमोदकैस्सह ।
उद्वहन् परशुहस्त ते नमः श्रीसमृद्धियुत देव पिंगल ॥ १० ॥
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नीलाब्जं दाडिमी वीणा शालीगुंजाक्षसूत्रकम् ।
दधदुच्छिष्टनामाऽयं गणेशः पातु मोक्षदः ॥ ११ ॥
पाशांकुशस्वदन्ताम्रफलवानाखुवाहनः ।
विघ्नं निहन्तु नस्सर्वं रक्तवर्णो विनायकः ॥ १२ ॥
दन्तकल्पलतापाश रत्नकुंभांकुशोज्वलम् ।
बंधूककमनीयाभं ध्यायेत् क्षिप्रगणाधिपम् ॥ १३ ॥
अभयवरदहस्तः पाशदन्ताक्षमालाः सृणिपरशुदधानो मुद्गरं मोदकं च ।
फलमधिगतसिंहः पंचमातंगवक्त्रो गणपतिरतिगौरः पातु हेरंबनामा ॥ १४ ॥
बिभ्राणश्शुकबीजपूरकमलं माणिक्यकुंभांकुशौ पाशंकल्पलतां च खड्गविलसद्ज्योतिस्सुधानिर्मलः ।
श्यामेनात्तसरोरुहेणसहितो देवीद्वयेनान्तिके गौरांगो वरदानहस्तकमलो लक्ष्मीगणेशोऽवतात् ॥ १५ ॥
कल्हारांबुज बीजपूरकगदा दंतेक्षुबाणैस्समं बिभ्राणो मणिकुंभचापकलमान् पाशं च चक्रान्वितम् ।
गौरांग्या रुचिरारविंदकरया देव्या सदा संयुतः शोणांगः शुभमातनोतु भगवान् नित्यं गणेशो महान् ॥ १६ ॥
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शंखेक्षुचापकुसुमेषुकुठारपाश-चक्रांकुशैः कलममंजरिकागदाद्यैः ।
पाणिस्थितैः परिसमाहित भूषणश्रीः विघ्नेश्वरो विजयते तपनीयगौरः ॥ १७ ॥
पाशांकुशापूपकुठारदंत-चंचत्कराकॢप्तवरांगुलीयकम् ।
पीतप्रभं कल्पतरोरधस्थं भजामि नृत्तैकपदं गणेशम् ॥ १८ ॥
कल्हारशालिकमलेक्षुकचापबाण दंतप्ररोहकगदी कनकोज्वलांगः।
आलिंगनोद्यतकरो हरितांगयष्ट्या देव्या दिशत्वभयं ऊर्ध्वगणेश्वरो मे ॥ १९ ॥
इति विरचितं गणेशमूर्ति-ध्यानपरं स्तवमागमार्थसारम् ।
पठति सततं गणेशभक्त्या त्रिजगति तस्य न किंचिदप्यलभ्यम् ॥ २० ॥
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