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शिव कवचम् || Shiva Kavacham || Shiv Kavach

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शिव कवचम् || Shiva Kavacham || Shiv Kavach

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शिव कवचम् || Shiva Kavacham || Shiv Kavach

वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकण्ठमरिन्दमम्।

सहस्रकरमत्युग्रं वन्दे शंभुमुमापतिम् ॥१॥

अथो परं सर्वपुराणगुह्यं निश्शेषपापौघहरं पवित्रम्।

जयप्रदं सर्वविपद्प्रमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते ॥२॥

नमस्कृत्वा महादेवं सर्वव्यापिनमीश्वरं। 

वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥३॥

शुचौ देशे समासीनो  यथावत्कल्पितासनः।

जितेन्द्रियो जितप्राणश्चिन्तयेच्छिवमव्ययम् ॥४॥

हृत्पुण्डरीकान्तरसन्निविष्टं स्वतेजसाव्याप्तनभोवकाशम्।

अतीन्द्रियं सूक्ष्ममनन्तमाद्यं ध्यायेत्परानन्दमयं महेशम् ॥५॥

ध्यानावधूताखिलकर्मबन्ध-श्चिरं चिदानन्दनिमग्नचेताः।

षडक्षरन्याससमाहितात्मा शैवेन कुर्यात्कवचेन रक्षाम् ॥६॥

मां पातु देवोऽखिलदेवतात्मा संसारकूपे पतितं गभीरे।

तन्नामदिव्यं परमन्त्रमूलं धुनोतु मे सर्वमघं हृदिस्थम्॥७॥

सर्वत्र मां रक्षतु विश्वमूर्ति-र्ज्योतिर्मयानन्दघनश्चिदात्मा।

अणॊरणीयानुतशक्तिरेकः स ईश्वरः पातु भयादशेषात् ॥८॥

यो भूस्वरूपेण बिभर्ति विश्वं पायात् स भूमेर्गिरिशोऽष्टमूर्तिः।

योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति सञ्जीवनं सोऽवतु मां जलेभ्यः ॥९॥

कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यो नृत्यति भूरिलीलः।

स कालरुद्रोऽवतु मां दवाग्ने-र्वात्यादिभीतेरखिलाच्च तापात् ।१०॥

प्रदीप्तविद्युत्कनकावभासो विद्यावराभीति कुठारपाणिः।

चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्रः प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्रम्॥११॥

कुठारवेदाङ्कुशपाशशूल-कपालढक्काक्षगुणान् दधानः।

चतुर्मुखो नीलरुचिस्त्रिनेत्रः पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥१२॥

कुन्देन्दुशंखस्फटिकावभासो वेदाक्षमालावरदाभयांकः ।

त्र्यक्षश्चतुर्वक्त्र उरुप्रभावः सद्योधिजातोऽवतु मां प्रतीच्यां ॥१३॥

वराक्षमालाऽभयटङ्कहस्तः सरोजकिञ्जल्कसमानवर्णः।

त्रिलोचनश्चारुचतुर्मुखो मां पायादुदीच्यां दिशि वामदेवः॥१४॥

वेदाभयेष्टांकुशपाशट्ङ्क-कपालढक्काक्षकशूलपाणिः।

सितद्युतिः पञ्चमुखोऽवता-दीशान ऊर्ध्वं परमप्रकाशः ॥१५॥

मूर्धानमव्यान्ममचन्द्रमौलिः फालं ममाव्यादथ फालनेत्रः।

नेत्रे ममाव्याद्भगनेत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्वनाथः ॥१६॥

पायाच्छ्रुतिर्मे श्रुतिगीतकीर्तिः कपोलमव्यात्सततं कपाली।

वक्त्रं सदा रक्षतु पञ्चवक्त्रो जिह्वां सदा रक्षतु वेदजिह्वः ॥१७॥

कण्ठं गिरीशोऽवतु नीलकण्ठः पाणिद्वयं पातु पिनाकपाणिः

दोर्मूलमव्यान्मम धर्मबाहु-र्वक्षःस्थलं दक्षमखान्तकोऽव्यात्॥१८॥

ममोदरं पातु गिरीन्द्रधन्वा मध्यं ममाव्यान्मदनान्तकारी।

हेरंबतातो मम पातु नाभिं पायात्कटिं धूर्ज्जटिरीश्वरो मे ॥१९॥

ऊरुद्वयं पातु कुबेरमित्रो जानुद्वयं मे जगदीश्वरोऽव्यात्

जंघायुगं पुंगवकेतुरव्यात् पादौ ममाव्यात् सुरवन्द्यपादः ॥२०॥

महेश्वरः पातु दिनादियामे मां मध्ययामेऽवतु वामदेवः।

त्रिलोचनः पातु तृतीययामे वृषध्वजः पातु दिनान्त्ययामे ॥२१॥

पायान्निशादौ शशिशेखरो मां गंगाधरो रक्षतु मां नीशीथे ।

गौरीपतिः पातु निशावसाने मृत्युञ्जयो रक्षतु सर्वकालम् ॥२२॥

अन्तःस्थितं रक्षतु शंकरो मां स्थाणुः सदा पातु बहिः स्थितं माम् ।

तदन्तरे पातु पतिः पशूनां सदाशिवो रक्षतु मां समन्तात् ॥२३॥

तिष्ठन्तमव्यात् भुवनैकनाथः पायाद्व्रजन्तं प्रमथाधिनाथः।

वेदान्तवेद्योऽवतु मां निषण्णं मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥२४॥

मार्गेषु मां रक्षतु नीलकण्ठः शैलादि दुर्गेषु पुरत्रयारिः।

अरण्यवासादि महाप्रवासे पायान्मृगव्याध उदारशक्तिः ॥२५॥

कल्पान्तकाटोपपटुप्रकोप-स्फुटाट्टहासोच्चलिताण्डकोशः।

घोरारिसेनार्णव दुर्निवार-महाभयाद्रक्षतु वीरभद्रः ॥२६॥

पत्त्यश्वमातंगघटावरूथ-सहस्रलक्षायुतकोटिभीषणम्।

अक्षौहिणीनां शतमाततायिनां छिन्ध्यान्मृडो घोरकुठारधारया ॥२७॥

निहन्तु दस्यून् प्रलयानलार्चि-र्ज्वलत्त्रिशूलं त्रिपुरान्तकस्य।

शार्दूलसिंहर्क्षवृकादि हिंस्रान् सन्त्रासयत्वीशधनुः पिनाकः ॥२८॥

दुःस्वप्न दुश्शकुन दुर्गति दौर्मनस्य-दुर्भिक्ष दुर्व्यसन दुस्सहदुर्यशांसि।

उत्पाततापविषभीतिमसद्ग्रहार्ति-व्याधींश्च नाशयतु जगतामधीशः ॥२९॥

ऒं नमो भगवते सदाशिवाय सकलतत्त्वात्मकाय,

सर्वमन्त्रस्वरूपाय सर्वतत्वविदूराय ब्रह्मरुद्रावतारिणे,

नीलकण्ठाय पार्वतीमनोहरप्रियाय,

सोमसूर्याग्निलोचनाय भस्मोद्धूलितविग्रहाय,

महामणिमकुटधारणाय माणिक्यभूषणाय,

सृष्टिस्थितिप्रलयकालरौद्रावताराय दक्षाध्वरध्वंसकाय,

महाकालभेदनाय मूलाधारैकनिलयाय,

तत्त्वातीताय गंगाधराय सर्वदेवाधिदेवाय,

षडाश्रयाय वेदान्तसाराय त्रिवर्गसाधनाय,

अनन्तकॊटिब्रह्माण्डनायकाय अनन्त-वासुकि-,

तक्षक-कार्कोटक-शंख-कुलिक-पद्म-महापद्मेत्यष्ट,

महानागकुलभूषणाय प्रणवस्वरूपाय,

चिदाकाशायाकाशदिक्स्वरूपाय,

ग्रहनक्षत्रमालिने सकलाय कलरहिताय,

सकललोकैककर्त्रे सकललोकैकभर्त्रे,

सकललोकैकसंहर्त्रे सकललोकैकगुरवे,

सकललोकैकसाक्षिणे सकलनिगमगुह्याय,

सकलवेदान्तपारगाय सकललोकैकवरप्रदाय,

सकललोकैकशंकराय शशाङ्कशेखराय,

शाश्वतनिजावासाय निराभासाय निरामयाय,

निर्मलाय निर्लोभाय निर्मदाय निश्चिन्ताय,

निरहंकाराय निरङ्कुशाय निष्कलङ्काय,

निर्गुणाय निष्कामाय निरुपप्लवाय,

निरवद्याय निरन्तराय निष्कारणाय,

निरातङ्काय निष्प्रपञ्चाय निस्संगाय,

निर्द्वन्दाय निराधाराय निरागाय,

निष्क्रोधाय निर्मूलाय निष्पापाय निर्भयाय,

निर्विकल्पाय निर्भेदाय निष्क्रियाय,

निस्तुलाय निस्संशयाय निरञ्जनाय,

निरुपमविभवाय नित्य-शुद्ध-बुद्धि-,

परिपूर्णसच्चिदानन्दाद्वयाय,

परमशान्तस्वरूपाय तेजोरूपाय,

तेजोमयाय जयजयरुद्रमहारौद्र-,

भद्रावतारमहाभैरव कालभैरव कल्पान्तभैरव,

कपालमालाधर खट्वाङ्ग-,

खड्ग-चर्म-पाशाङ्कुश-डमरु-शूल-चाप-बाण-,

गदा-शक्ति-भिन्दिपाल-तोमर-मुसल-,

मुद्गर-पाश-परिघ-भुशुण्डी-शतघ्नी-,

चक्राद्यायुध-भीषण-कर सहस्रमुखदंष्ट्र,

करालवदन! विकटाट्टहासविसंहारित,

ब्रह्माण्डमण्डल नागेन्द्रकुण्डल! नागेन्द्रहार!,

नागेन्द्रवलय! नागेन्द्रचर्मधर !,

मृत्युञ्जय त्रैंबक त्रिपुरान्तक विश्वरूप!,

विश्वरूपाक्ष विश्वेश्वर!

वृषभवाहन! विषविभूषण,

विश्वतोमुख! सर्वतो रक्षरक्ष मां,

ज्वलज्वलमहामृत्युभयं नाशय नाशय,

चोरभयमुत्सादय उत्सादय,

विषसर्पभयं शमयशमय,

चोरान् मारय मारय मम शत्रून्,

उच्चाट्योच्चाटय त्रिशूलेन विदारय,

विदारय कुठारेण भिन्धि भिन्धि,

खड्गेन छिन्धि छिन्धि खट्वाङ्गेन,

विपोथय विपोथय मुसलेन,

निष्पेषय निष्पेषय बाणैः सन्ताडय,

सन्ताडय  रक्षांसि भीषय भीषय,

शेषभूतानि विद्रावय विद्रावय,

कूश्माण्डवेतालमारीचब्रह्मराक्षसगणान्,

सन्त्रासय सन्त्रासय ममाभयं कुरुकुरु,

वित्रस्तं मामाश्वासयाश्वासय-,

नरकमहाभयात् मामुद्धरोद्धर सञ्जीवय,

सञ्जीवय क्षुत्तृभ्यां मामाप्याययाप्यायय,

दुःखातुरं मामानन्दयानन्दय शिवकवचेन,

मामाच्छादयाच्छादय मृत्युञ्जय त्र्यंबक,

सदाशिव नमस्ते नमस्ते,

इत्येतत् कवचं शैवं वरदं व्याहृतं मया।

सर्वबाधाप्रशमनं  रहस्यं सर्वदेहिनाम् ॥३०॥

यस्सदा धारयेन्मर्त्यः शैवं कवचमुत्तमम्।

न तस्य जायते क्वापि भयं शंभोरनुग्रहात् ॥३१॥

क्षीणायुः प्राप्तमृत्युर्वा महारोगहतोऽपि वा।

सद्यः सुखमवाप्नोति दीर्घमायुश्च विन्दति ॥३२॥

सर्वदारिद्र्यशमनं सौमङ्गल्यविवर्धनम्

यो धत्ते कवचं शैवं सदेवैरपि पूज्यते ॥३३॥

महापातकसंघातैर्मुच्यते चोपपातकैः

देहान्ते मुक्तिमाप्नोति शिववर्मानुभावतः ॥३४॥

त्वमपि श्रद्धया वत्स !शैवं कवचमुत्तमम्।

धारयस्व मया दत्तं सद्यः श्रेयोह्यवाप्स्यसि ॥३५॥

इत्युक्त्वा ऋषभो योगी तस्मै पार्थिवसूनवे।

ददौ शंखं महारावंखड्गञ्चारिनिषूदनम् ॥३६॥

पुनश्च भस्म सम्मन्त्र्य तदंगं परितोऽस्पृशत्।

गजानां षट्सहस्रस्य द्विगुणस्य बलं ददौ ॥३७॥

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