परमेश्वर स्तुति सार स्तोत्रम् || Parameshwara Stutisara Stotram || Parameshwara Stuti Sara Stotram

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परमेश्वर स्तुति सार स्तोत्रम् || Parameshwara Stutisara Stotram || Parameshwara Stuti Sara Stotram

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परमेश्वर स्तुति सार स्तोत्रम् || Parameshwara Stutisara Stotram || Parameshwara Stuti Sara Stotram

त्वमेकः शुद्धोऽसि त्वयि निगमबाह्या मलमयं,

प्रपञ्चं पश्यन्ति भ्रमपरवशाः पापनिरताः।

बहिस्तेभ्यः कृत्वा स्वपदशरणं मानय विभो,

गजेन्द्रे दृष्टं ते शरणद वदान्यं स्वपददम् ॥१॥

न सृष्टेस्ते हानिर्यदि हि कृपयातोऽवसि च मां,

त्वयानेके गुप्ता व्यसनमिति तेऽस्ति श्रुतिपथे।

अतो मामुद्धर्तुं घटय मयि दृष्टिं सुविमलां,

न रिक्तां मे याच्ञां स्वजनरत कर्तुं भव हरे ॥२॥

कदाहं भो स्वामिन्नियतमनसा त्वां हृदि भज,

न्नभद्रे संसारे ह्यनवरतदुःखेऽति विरसः।

लभेयं तां शान्तिं परममुनिभिर्या ह्यधिगता,

दयां कृत्वा मे त्वं वितर परशान्तिं भवहर ॥३॥

विधाता चेद्विश्वं सृजति सृजतां मे शुभकृतिं,

विधुश्चेत्पाता माऽवतु जनिमृतेर्दुःखजलधेः ।

हरः संहर्ता संहरतु मम शोकं सजनकं,

यथाहं मुक्तः स्यां किमपि तु तथा ते विदधताम्॥४॥

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अहं ब्रह्मानन्दस्त्वमपि च तदाख्यः सुविदित,

स्ततोऽहं भिन्नो नो कथमपि भवत्तः श्रुतिदृशा।

तथा चेदानीं त्वं त्वयि मम विभेदस्य जननीं,

स्वमायां संवार्य प्रभव मम भेदं निरसितुम् ॥५॥

कदाहं ते स्वामिञ्जनिमृतिमयं दुःखनिबिडं,

भवं हित्वा सत्येऽनवरतसुखे स्वात्मवपुषि।

रमे तस्मिन्नित्यं निखिलमुनयो ब्रह्मरसिका,

रमन्ते यस्मिंस्ते कृतसकलकृत्या यतिवराः ॥६॥

पठन्त्येके शास्त्रं निगममपरे तत्परतया,

यजन्त्यन्ये त्वां वै ददति च पदार्थांस्तव हितान्।

अहं तु स्वामिंस्ते शरणमगमं संसृतिभया,

द्यथा ते प्रीतिः स्याद्धितकर तथा त्वं कुरु विभो॥७॥

अहं ज्योतिर्नित्यो गगनमिव तृप्तः सुखमयः,

श्रुतौ सिद्धोऽद्वैतः कथमपि न भिन्नोऽस्मि विधुतः।

इति ज्ञाते तत्त्वे भवति च परः संसृतिलया,

दतस्तत्त्वज्ञानं मयि सुघटयेस्त्वं हि कृपया ॥८॥

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अनादौ संसारे जनिमृतिमये दुःखितमना,

मुमुक्षुस्सन्कश्चिद्भजति हि गुरुं ज्ञानपरमम्।

ततो ज्ञात्वा यं वै तुदति न पुनः क्लेशनिवहै,

र्भजेऽहं तं देवं भवति च परो यस्य भजनात् ॥९॥

विवेको वैराग्यो न च शमदमाद्याः षडपरे,

मुमुक्षा मे नास्ति प्रभवति कथं ज्ञानममलम्।

अतः संसाराब्धेस्तरणसरणिं मामुपदिशन्,

स्वबुद्धिं श्रौतीं मे वितर भगवंस्त्वं हि कृपया ॥१०॥

कदाहं भो स्वामिन्निगममतिवेद्यं शिवमयं,

चिदानन्दं नित्यं श्रुतिहतपरिच्छेदनिवहम्।

त्वमर्थाभिन्नं त्वामभिरम इहात्मन्यविरतं,

मनीषामेवं मे सफलय वदान्य स्वकृपया ॥११॥

यदर्थं सर्वं वै प्रियमसुधनादि प्रभवति,

स्वयं नान्यार्थो हि प्रिय इति च वेदे प्रविदितम्।

स आत्मा सर्वेषां जनिमृतिमतां वेदगदित,

स्ततोऽहं तं वेद्यं सततममलं यामि शरणं ॥१२॥

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मया त्यक्तं सर्वं कथमपि भवेत्स्वात्मनि मति,

स्त्वदीया माया मां प्रति तु विपरीतं कृतवती।

ततोऽहं किं कुर्यां न हि मम मतिः क्वापि चरति,

दयां कृत्वा नाथ स्वपदशरणं देहि शिवदम् ॥१३॥

नगा दैत्याः कीशा भवजलधिपारं हि गमिता,

स्त्वया चान्ये स्वामिन्किमिति समयेऽस्मिञ्छयितवान्।

न हेलां त्वं कुर्यास्त्वयि निहितसर्वे मयि विभो,

न हि त्वाहं हित्वा कमपि शरणं चान्यमगमम्॥१४॥

अनन्ताद्या विज्ञा न गुणजलधेस्तेऽन्तमगम,

न्नतः पारं यायात्तव गुणगणानां कथमयम्।

गुणान्यावद्धि त्वां जनिमृतिहरं याति परमां,

गतिं योगिप्राप्यामिति मनसि बुद्ध्वाहमनवम् ॥१५॥

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