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मत्स्य स्तुति || Matsya Stuti || Matsya Avatara Stuti || Matsyastuti

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मत्स्य स्तुति || Matsya Stuti || Matsya Avatara Stuti || Matsyastuti

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मत्स्य स्तुति || Matsya Stuti || Matsya Avatara Stuti || Matsyastuti

मग्ने मेरौ पतति तपने तोयबिन्दाविवेन्दौ

अन्तर्लीने जलधिसलिले व्याकुले देवलोके ।

मात्स्यं रूपं मुखपुटतटाकृष्टनिर्मुक्तवार्धि

श्रीकान्तस्य स्थलजलगतं वेत्यलक्ष्यं पुनातु ॥

वियत्पुच्छातुच्छोच्छलितजलगर्भं निधिरपां

अपान्नाथः पाथः पृथुललवदुस्थो वियदभूत् ।

निधिर्भासामौर्वो दिनपतिरभूदौर्वदहनः

चलत्काये यस्मिन्स जयति हरिर्मीनवपुषा ॥

जीयासुः शकुलाकृतेर्भगवतः पुच्छच्छटाच्छोटनात्

उद्यन्तः शतचन्द्रिताम्बरतलं ते बिन्दवः सैन्धवाः ।

यैर्व्यावृत्य पतद्भिरौर्वशिखिनस्तेजोजटालं वपुः

पानाध्मानवशादरोचकरुजां चक्रे चिरायास्पदम् ॥

दिश्याद्वः शकुलाकृतिः स भगवान्नैःश्रेयसीं सम्पदं

यस्य स्फूर्जदतुच्छपुच्छशिखरप्रेङ्खोलनक्रीडनैः ।

विष्वग्वार्धिसमुच्छलज्जलभरैर्मन्दाकिनीसङ्गतैः

गङ्गासागरसङ्गमप्रणयिनी जाता विहायःस्थली ॥

मायामीनतनोस्तनोतु भवतां पुण्यानि पङ्कस्थितिः

पुच्छाच्छोटसमुच्छलज्जलगुरुप्राग्भाररिक्तोदधेः ।

पातालावटमध्यसङ्कटतया पर्याप्तकष्टस्थितेः

वेदोद्धारपरायणस्य सततं नारायणस्य प्रभोः ॥

जृम्भाविस्तृतवक्त्रपङ्कजविधेर्हृत्वा श्रुतीः सागरे

लीनं त्रस्तसमस्तनक्रनिकरं शङ्खं जघानाजिरे ।

पुच्छोत्क्षिप्तजलोत्करैः प्रतिदिशं सन्तर्प्य यो वै धरां

पायाद्वः स मृणालकोमलतनुर्मीनाभिधानो हरिः ॥

हंहो मीनतनो हरे किमुदधे किं वेपसे शैत्यतः

स्विन्नः किं वडवानलात्पुलकितः कस्मात्स्वभावादहम् ।

इत्थं सागरकन्यकामुखशशिव्यालोकनेनाधिक-

प्रोद्यत्कामजचिह्ननिह्नुतिपरः शौरिः शिवायास्तु वः ॥

पुच्छं चेदहमुन्नयाम्यनवधिस्तुच्छो भवेदम्बुधिः

क्रीडां चेत्कलये मनागपि जले पीडा परं यादसाम् ।

निस्पन्दो भृशमामृशन्निति भरब्रह्माण्डभाण्डक्षय-

क्षोभाकुञ्चितवेष एष भगवान्प्रीणातु मीनाकृतिः ॥

चन्द्रादित्योरुनेत्रः कमलभवभवस्फारपृष्ठप्रतिष्ठो

भास्वत्कालाग्निजिह्मः पृथुलगलगुहादृष्टनिःशेषविश्वः ।

अद्भिः पुच्छोत्थिताभिश्चकितसुरवधूनेत्रसंसूचिताभिः

मत्स्यश्छिन्नाब्धिवेलं गगनतलमलं क्षालयन्वः पुनातु ॥

यं दृष्ट्वा मीनरूपं स्फुरदनलशिखायुक्तसंरक्तनेत्रं

लोलद्विस्तीर्णकर्णक्षुभितजलनिधिं नीलजीमूतवर्णम् ।

श्वासोच्छ्वासानिलौघैः प्रचलितगगनं पीतवारिं मुरारिं

दिङ्मूढोऽभूत्स शङ्खः स भवतु भवतां भूतये मीनरूपः ॥

दिङ्मूढं तं सुरारिं किल शितदशनैः पीड्यमानं रटन्तं

हृत्वा तीरे पयोधेः करतलकलितं पूरयामास शङ्खम् ।

नादेनाक्षोभ्य विश्वं प्रमुदितविबुधं त्रस्तदैत्यं स देवैः

दत्तार्घः पद्मयोनेः प्रहसितवदनः पातु वो दत्तवेदः ॥

॥ इति मत्स्यस्तुतिः सम्पूर्णा ॥

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