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किरात वाराही स्तोत्र || Kirata Varahi Stotram || Kirata Varahi Stotra
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किरात वाराही स्तोत्र || Kirata Varahi Stotram || Kirata Varahi Stotra
अस्य श्री किरातवराही स्तोत्र मन्त्रस्य
किरातवराह ऋषिः
अनुष्टुप् छन्दः
शत्रुनिवारिणी वाराही देवता
तदनुग्रहेण सर्वोपद्रवशान्त्यर्थे जपे विनियोगः
उग्ररूपां महादेवीं शत्रुमारणतत्पराम्।
क्रूरां किरातवाराहीं वन्देऽहं कार्यसिद्धये ॥१॥
स्वापहीनां मदालस्यां तां मातां मदतामसीं।
दंष्ट्राकरालवदनां विकृतास्यां महाबलाम्॥२॥
उग्रकेशीं उग्रकरां सोमसूर्याग्निलोचनाम्।
लोचनाग्निस्फुलिङ्गाभिर्भस्मीकृतजगत्त्रयीम् ॥३॥
जगत्त्रयं क्षोभयन्तीं भक्षयन्तीं मुहुर्मुहुः।
खड्गं च मुसलं चैव हलं शोणितपात्रकम्॥४॥
दधतीं च चतुर्हस्तां सर्वाभरण्भूषिताम्।
गुंजामालां शंखमालां नानारत्नैर्वराटकैः॥५॥
हारनूपुरकेयूरकटकैरुपशोभिताम्।
वैरिपत्निकण्ठसूत्रच्छेदिनीं क्रूररूपिणीम्॥६॥
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क्रुद्धोद्धतां प्रजाहन्तृक्षुरिकेवस्थिताम् सदा।
देवतार्धोरुयुगलां रिपुसंहारताण्डवां ॥७॥
रुद्रशक्तिं सदोद्युक्तां ईश्वरीं परदेवताम्।
विभज्य कण्ठनेत्राभ्यां पिबन्तीं असृजं रिपोः॥८॥
गोकण्ठे मदशार्दूलो गजकण्ठे हरिर्यथा।
कुपितायां च वाराह्यां पतन्तीं नाशयन् रिपून् ॥९॥
सर्वे समुद्राः शुष्यन्ति कंपन्ते सर्वदेवताः।
विधिविष्णुशिवेन्द्राद्या मृत्युभीताः पलायिताः॥१०॥
एवं जगत्त्रयक्षोभकारकक्रोधसंयुताम्।
साधकस्य पुरः स्थित्वा प्रद्रवन्तीं मुहुर्मुहुः॥११॥
लेलिहानां बृहद्जिह्वां रक्तपानविनोदिनीम्।
त्वगसृङ्मांसमेदोस्थिमज्जाशुक्राणि सर्वदा॥१२॥
भक्षयन्तीं भक्तशत्रून् रिपूणां प्राणहारिणीम्
एवं विधां महादेवीं ध्यायेऽहं कार्यसिद्धये॥१३॥
शत्रुनाशनरूपाणि कर्माणि कुरु पञ्चमि।
मम शत्रून् भक्षयाशु घातयाऽसाधकान् रिपून् ॥१४॥
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सर्वशत्रुविनाशार्थं त्वामेव शरणं गतः।
तस्मादवश्यं वाराहि शत्रूणां कुरु नाशनम्॥१५॥
यथा नश्यन्ति रिपवस्तथा विद्वेषणं कुरु।
यस्मिन् काले रिपून् तुभ्यं अहं वक्ष्यामि तत्त्वतः॥१६॥
मां दृष्ट्वा ये जना नित्यं विद्विषन्ति हनन्ति च।
दुष्यन्ति च निन्दन्ति वाराहि तांश्च मारय ॥१७॥
मा हन्तु ते मुसलः शत्रून् अशनेः पतनादिव।
शत्रुग्रामान् गृहान्देशान् राष्ट्रान् प्रविश सर्वशः॥१८॥
उच्चाटय च वाराहि काकवद्भ्रमयाशु तान्।
अमुकाऽमुक संज्ञानां शत्रूणां च परस्परम्॥१९॥
दारिद्र्यं मे हन हन शत्रून् संहर संहर।
उपद्रवेभ्यो मां रक्ष वाराहि भक्तवत्सले ॥२०॥
एतत्किरातवाराह्या स्तोत्रमापन्निवारणम्।
मारकः सर्वशत्रूणां सर्वाभीष्टफलप्रदम्॥२१॥
त्रिसन्ध्यं पठते यस्तु स्तोत्रोक्तफलमश्नुते ।
मुसलेनाऽथ शत्रूंश्च मारयन्तीं स्मरन्ति ये ॥२२॥
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तार्क्ष्यारूढां सुवर्णाभां जपेत्तेषां न संशयः।
अचिराद्दुस्तरं साध्यं हस्तेनाऽऽकृष्य दीयते ॥२३॥
एवं ध्यायेज्जपेद्देवीं जनवश्यमवाप्नुयात्।
दंष्ट्राधृतभुजां नित्यं प्राणवायुं प्रयच्छति॥२४॥
दूर्वाभां संस्मरेद्देवीं भूलाभं याति बुद्धिमान्।
सकलेष्टार्थदा देवी साधक स्तोत्र दुर्लभः ॥२५॥
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