कल्याणवृष्टिस्तवः || Kalyana Vrushti Stavam || Kalyana Vrushti Stavam Stotram

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कल्याणवृष्टिस्तवः || Kalyana Vrushti Stavam || Kalyana Vrushti Stavam Stotram

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कल्याणवृष्टिस्तवः || Kalyana Vrushti Stavam || Kalyana Vrushti Stavam Stotram

कल्याणवृष्टिभिरिवामृतपूरिताभिः

लक्ष्मीस्वयंवरण मंगलदीपिकाभिः ।

सॆवाभिरम्ब तव पादसरॊजमूलॆ

नाकारि किं मनसि भाग्यवतां जनानाम् ॥ १ ॥

एतावदेव जननि स्पृहणीयमास्तॆ

त्वद्वन्दनॆषु सलिलस्थगितॆ च नॆत्रॆ ।

सान्निद्ध्यमुद्यदरुणायुतसॊदरस्य

त्वद्विग्रहस्य परया सुधयाप्लुतस्य ॥ २ ॥

ईशत्वनामकलुषाः कति वा न सन्ति

ब्रह्मादयः प्रतिभवं प्रलयाभिभूताः ।

एकः स एव जननि स्थिरसिद्धिरास्तॆ

यः पादयॊस्तव सकृत्प्रणतिं करॊति ॥ ३ ॥

लब्ध्वा सकृत् त्रिपुरसुन्दरि तावकीनं

कारुण्यकन्दलित कान्तिभरं कटाक्षम् ।

कन्दर्पकॊटिसुभगास्त्वयि भक्तिभाजः

सम्मोहयन्ति तरुणीर्भुवनत्रयॆऽपि ॥ ४ ॥

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ह्रींकारमॆव तव नाम गृणन्ति वॆदाः

मातस्त्रिकॊणनिलयॆ त्रिपुरॆ त्रिनॆत्रॆ ।

त्वत्संस्मृतौ यमभटाभिभवं विहाय

दीव्यन्ति नन्दनवनॆ सह लॊकपालैः ॥ ५ ॥

हन्तुः पुरमधिगलं परिपीयमानः

क्रूरः कथं न भविता गरलस्य वॆगः ।

नाश्वासनाय यदि मातरिदं तवार्धं

देहस्य शश्वदमृताप्लुतशीतलस्य ॥ ६ ॥

सर्वज्ञतां सदसि वाक्पटुतां प्रसूतॆ

दॆवि त्वदङ्घ्रि सरसीरुहयॊः प्रणामः ।

किं च स्फुरन्मकुटमुज्ज्वलमातपत्रं

द्वॆ चामरॆ च महतीं वसुधां ददाति ॥ ७ ॥

कल्पद्रुमैरभिमतप्रतिपादनॆषु

कारुण्यवारिधिभिरम्ब भवत्कटाक्षैः ।

आलॊकय त्रिपुरसुन्दरि ममनाथम्

त्वय्यॆव भक्तिभरितं त्वयि बद्धतृष्णम् ॥ ८ ॥

हन्तॆतरॆष्वपि मनांसि निधाय चान्यॆ

भक्तिं वहन्ति किल पामरदैवतॆषु ।

त्वामॆव दॆवि मनसा समनुस्मरामि

त्वामॆव नौमि शरणं जननि त्वमॆव ॥ ९ ॥

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लक्ष्यॆषु सत्स्वपि कटाक्षनिरीक्षणानां

आलॊकय त्रिपुरसुन्दरि मां कदाचित् ।

नूनं मया तु सदृशः करुणैकपात्रं

जातॊ जनिष्यति जनॊ न च जायतॆ वा ॥ १० ॥

ह्रीं ह्रीमिति प्रतिदिनं जपतां तवाख्यां

किं नाम दुर्लभमिह त्रिपुराधिवासॆ ।

मालाकिरीटमदवारणमाननीया

तान् सॆवतॆ वसुमती स्वयमॆव लक्ष्मीः ॥ ११ ॥

संपत्कराणि सकलॆन्द्रियनन्दनानि

साम्राज्यदाननिरतानि सरॊरुहाक्षि ।

त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणॊद्यतानि

मामॆव मातरनिशं कलयन्तु नान्यम् ॥ १२ ॥

कल्पॊपसंहृतिषु कल्पितताण्डवस्य

दॆवस्य खन्डपरशॊः परभैरवस्य ।

पाशाङ्कुशैक्षवशरासनपुष्पबाणा

सा साक्षिणी विजयतॆ तव मूर्तिरॆका ॥ १३ ॥

लग्नं सदा भवतु मातरिदं तवार्धं

तॆजः परं बहुलकुङ्कुमपङ्कशॊणम् ।

भास्वत्किरीटममृतांशुकलावतंसं

मध्यॆ त्रिकॊणनिलयं परमामृतार्द्रम् ॥ १४ ॥

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ह्रींकारमॆव तव नाम तदॆव रूपं

त्वन्नाम दुर्लभमिह त्रिपुरॆ गृणन्ति ।

त्वत्तॆजसा परिणतं वियदादिभूतं

सौख्यं तनॊति सरसीरुहसंभवादॆः ॥ १५ ॥

ह्रींकारत्रयसंपुटॆन महता मन्त्रॆण संदीपितं

स्तोत्रं यः प्रतिवासरं तव पुरॊ मातर्जपॆन्मन्त्रवित् ।

तस्य क्षॊणिभुजॊ भवन्ति वशगा लक्ष्मीश्चिरस्थायिनी

वाणी निर्मलसूक्तिभारभरिता जागर्ति दीर्घं वयः ॥ १६ ॥

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