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गायत्री रामायण || Gayatri Ramayana || Sri Gayatri Ramayana
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गायत्री रामायण || Gayatri Ramayana || Sri Gayatri Ramayana
गायत्री रामायण
(गायत्रीमन्त्र अक्षराणां(वर्णानां) श्रीमद् वाल्मीकिरामायणे प्रदर्शिताः)
तपस्स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् ।
नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुङ्गवम् ॥ बालकाण्ड १.०१.००१॥ १॥
स हत्वा राक्षसान्सर्वान् यज्ञघ्नान् रघुनन्दनः ।
ऋषिभिः पूजितस्तत्र यथेन्द्रो विजयी पुरा ॥ बालकाण्ड १.०३०.०२४॥ २॥
विश्वामित्रः सरामस्तु श्रुत्वा जनकभाषितम् ।
वत्स राम धनुः पश्य इति राघवमब्रवीत् ॥ बालकाण्ड १.०६७.०१२॥ ३॥
तुष्टावास्य तदा वंशं प्रविश्य च विशाम्पतेः ।
शयनीयं नरेन्द्रस्य तदासाद्य व्यतिष्ठत ॥ अयोध्याकाण्ड २.०१५.०२०॥ ४॥
वनवासं हि सङ्ख्याय वासांस्याभरणानि च ।
भर्तारमनुगच्छन्त्यै सीतायै श्वशुरो ददौ ॥ अयोध्याकाण्ड २.०४०.०१४॥ ५॥
राजा सत्यं च धर्मश्च राजा कुलवतां कुलम् ।
राजा माता पिता चैव राजा हितकरो नृणाम् ॥ अयोध्याकाण्ड २.०६७.०३४॥ ६॥
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निरीक्ष्य स मुहूर्तं तु ददर्श भरतो गुरुम् ।
उटजे राममासीनं जटामण्डलधारिणम् ॥ अयोध्याकाण्ड २.०९९.०२५॥ ७॥
यदि बुद्धिः कृता द्रष्टुमगस्त्यं तं महामुनिम् ।
अद्यैव गमने बुद्धिं रोचयस्व महामते ॥ अरण्यकाण्ड ३.०११.०४३॥ ८॥
भरतस्यार्यपुत्रस्य श्वश्रूणां मम च प्रभो ।
मृगरूपमिदं व्यक्तं विस्मयं जनयिष्यति ॥ अरण्यकाण्ड ३.०४३.०१८॥ ९॥
गच्छ शीघ्रमितो राम सुग्रीवं तं महाबलम् ।
वयस्यं तं कुरु क्षिप्रमितो गत्वाऽद्य राघव ॥ अरण्यकाण्ड ३.०७२.०१७॥ १०॥
देशकालौ भजस्वाद्य क्षममाणः प्रियाप्रिये ।
सुखदुःखसहः काले सुग्रीववशगो भव ॥ किष्किन्धाकाण्ड ४.०२२.०२०॥ ११॥
वन्दितव्यास्ततः सिद्धास्तपसा वीतकल्मषाः ।
प्रष्टव्या चापि सीतायाः प्रवृत्तिर्विनयान्वितैः ॥ किष्किन्धाकाण्ड ४.०४३.०३३॥ १२॥
स निर्जित्य पुरीं लङ्कां श्रेष्ठां तां कामरूपिणीम् ।
विक्रमेण महातेजा हनूमान् कपिसत्तमः ॥ सुन्दरकाण्ड ५.०४.००१॥ १३॥
धन्या देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः ।
मम पश्यन्ति ये वीरं रामं राजीवलोचनम् ॥ सुन्दरकाण्ड ५.०२६.०४१॥ १४॥
मङ्गलाभिमुखी तस्य सा तदासीन्महाकपेः ।
उपतस्थे विशालाक्षी प्रयता हव्यवाहनम् ॥ सुन्दरकाण्ड ५.०५३.०२६॥ १५॥
हितं महार्थं मृदु हेतुसंहितं व्यतीतकालायतिसम्प्रतिक्षमम् ।
निशम्य तद्वाक्यमुपस्थितज्वरः प्रसङ्गवानुत्तरमेतदब्रवीत् ॥ ६.०१०.०२७॥ १६॥
धर्मात्मा रक्षसश्रेष्ठः सम्प्राप्तोऽयं विभीषणः ।
लङ्कैश्वर्यमिदं श्रीमान्श्रुवं प्राप्नोत्यकण्टकम् ॥ युद्धकाण्ड ६.०४१.०६८॥ १७॥
यो वज्रपाताशनिसन्निपातान्न चुक्षुभे नापि चचाल राजा ।
स रामबाणाभिहतो भृशार्तश्चचाल चापं च मुमोच वीरः ॥ युद्धकाण्ड ६.०५९.१३९॥ १८॥
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यस्य विक्रममासाद्य राक्षसा निधनं गताः ।
तं मन्ये राघवं वीरं नारायणमनामयम् ॥ युद्धकाण्ड ६.०७२.०११॥ १९॥
न ते ददृशिरे रामं दहन्तमपिवाहिनीम् ।
मोहिताः परमास्त्रेण गान्धर्वेण महात्मना ॥ युद्धकाण्ड ६.०९३.०२६॥ २०॥
प्रणम्य देवताभ्यश्च ब्राह्मणेभ्यश्च मैथिली ।
बद्धाञ्जलिपुटा चेदमुवाचाग्निसमीपतः ॥ युद्धकाण्ड ६.११६.०२४॥ २१॥
चलनात्पर्वतस्यैव गणा देवाश्च कम्पिताः ।
चचाल पार्वती चापि तदाश्लिष्टा महेश्वरम् ॥ उत्तरकाण्ड ७.०१६.०२६॥ २२॥
दाराः पुत्राः पुरं राष्ट्रं भोगाच्छादनभोजनम् ।
सर्वमेवाविभक्तं नौ भविष्यति हरीश्वर ॥ उत्तरकाण्ड ७.०३४.०४१॥ २३॥
यामेव रात्रिं शत्रुघ्नः पर्णशालां समाविशत् ।
तामेव रात्रिं सीतापि प्रसूता दारकद्वयम् ॥ उत्तरकाण्ड ७.०६६.००१॥ २४॥
इदं रामायणं कृत्स्नं गयत्रीबीजसंयुतम् ।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
इति गायत्रीरामायणं सम्पूर्णम् ।
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