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गर्ग संहिता || Garga Samhita || Shri Garga Samhita-1
“गर्गसंहिता” नाम से एक दूसरा गन्थ भी है जो ज्योतिष ग्रन्थ है । गर्ग संहिता गर्ग मुनि की रचना है । गर्ग संहिता में मधुर श्रीकृष्णलीला परिपूर्ण है । इसमें राधाजी की माधुर्य-भाव वाली लीलाओं का वर्णन है । हम यंहा गर्ग संहिता तीसरा अध्याय उग्रसेन और व्यास जी का संवाद बताने जा रहे हैं ! गर्ग संहिता आदि के बारे में बताने जा रहे हैं !! जय श्री सीताराम !! जय श्री हनुमान !! जय श्री दुर्गा माँ !! यदि आप अपनी कुंडली दिखा कर परामर्श लेना चाहते हो तो या किसी समस्या से निजात पाना चाहते हो तो कॉल करके या नीचे दिए लाइव चैट ( Live Chat ) से चैट करे साथ ही साथ यदि आप जन्मकुंडली, वर्षफल, या लाल किताब कुंडली भी बनवाने हेतु भी सम्पर्क करें : 9667189678 Garga Samhita By Online Specialist Astrologer Acharya Pandit Lalit Trivedi.
गर्ग संहिता || Garga Samhita || Shri Garga Samhita-1
विज्ञानखण्डः – तृतीयोऽध्यायः
निर्गुणभक्तियोगकथनम् –
उग्रसेन उवाच –
श्रुतं तव मुखाद् ब्रह्मन् गुणकर्मगतिर्मया ॥
पुनरावर्तिनो लोकास्तथा सन्ति विनिश्चताः ॥१॥
निष्कारणाद्धरेः साक्षात्सेवनाद्धाम उत्तमम् ॥
लभते दुर्लभं दिव्यं भक्तानां तच्छ्रुतं मया ॥२॥
भक्तियोगः कतिविधो वद मे वदतां वर ॥
येन प्रसन्नो भवति भगवान् भक्तवत्सलः ॥३॥
श्रीव्यास उवाच –
द्वारावतीश धन्योऽसि श्रीकृष्णेष्टो हरिप्रियः ॥
पृच्छसे भक्तियोगं त्वं धन्या ते विमला मतिः ॥४॥
यं श्रुत्वा निर्मलो भूयाद्विश्वघात्यपि पातकी ॥
तं भक्तियोगं विशदं तुभ्यं वक्ष्यामि यादव ॥५॥
भक्तियोगो द्विधा राजन् सगुणश्चैव निर्गुणः ॥
सगुणः स्याद्बहुविधो निर्गुणश्चैकलक्षणः ॥६॥
सगुणः स्याद्बहुविधो गुणमार्गेण देहिनाम् ॥
तैर्गुणैस्त्रिविधा भक्ता भवन्ति शृणु तान्पृथक् ॥७॥
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हिंसा दम्भं च मात्सर्यं चाभिसन्धाय भिन्नदृक् ॥
कुर्याद्भावं हरौ क्रोधी तामसः परिकीर्तितः ॥८॥
यश ऐश्वर्यविषयानभिसन्धाय यत्नतः ॥
अर्चयेद्यो हरिं राजन् राजसः परिकीर्तितः ॥९॥
उद्दीश्य कर्मनिर्हारमपृथग्भाव एव हि ॥
मोक्षार्थं भजते विष्णुं स भक्तः सात्विकः स्मृतः ॥१०॥
जिज्ञासुरार्तो ज्ञानी च तथाऽर्थार्थी महामते ॥
चतुर्विधा जना विष्णुं भजन्ते कृतमङ्गलाः ॥११॥
एवं बहुविधेनापि भक्तियोगेन माधवम् ॥
भजन्ति सनिमित्तास्ते जनाः सुकृतिनः परे ॥१२॥
लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य तथा शृणु ॥
तद्गुणश्रुतिमात्रेण श्रीकृष्णे पुरुषोत्तमे ॥१३॥
परिपूर्णतमे साक्षात्सर्वकारणकारणे ॥
मनोगतिरविच्छिन्ना खण्डिताऽहैतुकी च या ॥१४॥
यथाब्धावंभसा गंगा सा भक्तिर्निर्गुणा स्मृता ॥
निर्गुणानां च भक्तानां लक्षणं शृणु मानद ॥१५॥
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सार्वभौमं पारमेष्ठ्यं शक्रधिष्ण्यं तथैव च ॥
रसाधिपत्यं योगर्द्धिं न वाञ्छन्ति हरेर्जनाः ॥१६॥
हरिणा दीयमानं वा सालोक्यं यादवेश्वर ॥
न गृह्णन्ति कदाचित्ते सत्सङ्गानन्दनिर्वृताः ॥१७॥
सामीप्यं ते न वाञ्छन्ति भगवद्विरहातुराः ॥
संनिकृष्टे न तत्प्रेम यथा दूरतरे भवेत् ॥१८॥
सारुप्यं दीयमानं वा समानत्वाभिमानिनः ॥
नैरपेक्ष्यान्न वाञ्छन्ति भक्तास्तत्सेवनोत्सुकाः ॥१९॥
एकत्वं चापि कैवल्यं न वाञ्छन्ति कदाचन ॥
एवं चेत्तर्हि दासत्वं क्व स्वामित्वं परस्य च ॥२०॥
निरपेक्षाश्च ये शान्ता निर्वैराः समदर्शिनः ॥
आकैवल्याल्लोकपदग्रहणं कारणं विदुः ॥२१॥
नैरपेक्ष्यं महानन्दं निरपेक्षा जनाः हरेः ॥
जानन्ति हि यथा नासा पुष्पामोदं न चक्षुषी ॥२२॥
सकामाश्च तदानन्दं जानन्ति हि कथंचन ॥
रसकर्ता तथा हस्तो रसस्वादं न वेत्ति हि ॥२३॥
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तस्माद्राजन्भक्तियोगं विद्धि चात्यन्तिकं पदम् ॥
भक्तानां निरपेक्षाणां पद्धतिं कथयामि ते ॥२४॥
स्मरणं किर्तनं विष्णोः श्रवणं पादसेवनम् ॥
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥२५॥
कुर्वन्ति सततं राजन् भक्तिं ये प्रेमलक्षणाम् ॥
ते भक्ता दुर्लभा भूमौ भगवद्भावभावनाः ॥२६॥
कुर्वन्तो महतोपेक्षां दयां हीनेषु सर्वतः ॥
समानेषु तथा मैत्रीं सर्वभूतदयापराः ॥२७॥
कृष्णपादाब्जमधुपाः कृष्णदर्शनलालसाः ॥
कृष्णं स्मरन्ति प्राणेशं यथा प्रोषितभर्तृकाः ॥२८॥
श्रीकृष्णस्मरणाद्येषां रोमहर्षः प्रजायते ॥
आनन्दाश्रुकलाश्चैव वैवर्ण्यं तु क्वचिद्भवेत् ॥२९॥
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे ब्रुवन्तः श्लक्ष्णया गिरा ॥
अहर्निशं हरौ लग्नास्ते हि भागवतोत्तमाः ॥३०॥
इति श्रीगर्गसंहितायां विज्ञानखण्डे श्रीव्यासोग्रसेनसंवादे
निर्गुणभक्तियोगवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
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