भीष्म कृत श्रीकृष्ण स्तुति || Bhishma Krita Sri Krishna Stuti || Krishna Stuti

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भीष्म कृत श्रीकृष्ण स्तुति || Bhishma Krita Sri Krishna Stuti || Krishna Stuti

यह श्रीकृष्ण स्तुति श्री भीष्मपिता द्वारा लिखी हुई हैं ! Bhishma Krita Sri Krishna Stuti का वर्णित आपको श्रीमद्भागवत में देखने को मिल जायेगा ! भीष्म कृत श्रीकृष्ण स्तुति : को नियमित रूप से पाठ करने से भगवान श्री कृष्ण जी की कृपा और आशीर्वाद बना रहता हैं ! Bhishma Krita Sri Krishna Stuti आदि के बारे में बताने जा रहे हैं !! जय श्री सीताराम !! जय श्री हनुमान !! जय श्री दुर्गा माँ !! यदि आप अपनी कुंडली दिखा कर परामर्श लेना चाहते हो तो या किसी समस्या से निजात पाना चाहते हो तो कॉल करके या नीचे दिए लाइव चैट ( Live Chat ) से चैट करे साथ ही साथ यदि आप जन्मकुंडली, वर्षफल, या लाल किताब कुंडली भी बनवाने हेतु भी सम्पर्क करें : 9667189678 Bhishma Krita Sri Krishna Stuti By Online Specialist Astrologer Acharya Pandit Lalit Trivedi.

भीष्म कृत श्रीकृष्ण स्तुति || Bhishma Krita Sri Krishna Stuti || Krishna Stuti

भीष्म उवाच

इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि ।

स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः ॥ १ ॥

त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने ।

वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तुमेऽनवद्या ॥ २ ॥

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युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्-कचलुलितश्रमवार्यलङ्कृतास्ये ।

मम निशितशरैर्विभिध्यमान-त्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥ ३ ॥

सपदि सखि वचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य ।

स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा हृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु ॥ ४ ॥

व्यवहितपृतनामुखं निरीक्ष्य स्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्ध्या ।

कुमतिमहरदात्मविद्यया यः चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु ॥ ५ ॥

स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा-मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः ।

धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गु-र्हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ॥ ६ ॥

शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ।

प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥ ७ ॥

ललितगतिविलासवल्गुहास-प्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमानाः ।

कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः प्रकृतिमगन्किल यस्य गोपवध्वः ॥ ८ ॥

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मुनिगणनृपवर्यसङ्कुलेऽन्तः-सदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम् ।

अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो मम दृशिगोचर एष आविरात्मा ॥ ९ ॥

तमिममहमजं शरीरभाजां हृदि हृदि धिष्ठितमात्मकल्पितानाम् ।

प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं समधिगतोऽस्मि विधूत भेदमोहः ॥ १० ॥

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