अपमार्जन कवचम् || Apamarjana Kavacham || Apamarjana Kavach

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अपमार्जन कवचम् || Apamarjana Kavacham || Apamarjana Kavach

पूर्वे नारायणः पातु वरिजाक्षस्तु दक्षिणे।

प्रद्युम्नः पश्चिमे पातु वासुदेवस्तथोत्तरे॥१॥

ईशान्यां रक्षताद्विष्णुराग्नेय्यां च जनार्दनः।

नैऋत्यां पद्मनाभस्तु वायव्यां मधुसूदनः ॥२॥

ऊर्ध्वं गोवर्धनोद्धर्ता ह्यधस्ताच्च त्रिविक्रमः।

एताभ्यो दश दिग्भ्यश्च सर्वथा पातु केशवः॥३॥

एवं कृत्वा दिग्बन्धं विष्णुं सर्वत्र संस्मरन्।

अव्यग्रचित्तः कुर्वीत न्यासकर्म यथाविधि ॥४॥

अङ्गुष्ठाग्रे तु गोविन्दं तर्जन्यां तु महीधरम्।

मध्यमायां हृषीकेशं अनामिक्यां त्रिविक्रमम्॥५॥

कनिष्ठायां न्यसेद्विष्णुं करपृष्ठे तु वामनम्।

एवं अङ्गुलीन्यासं पश्चादङ्गेषु विन्यसेद् ॥६॥

शिखायां केशवं न्यस्य मूर्ध्नि नारायणं न्यसेत्।

माधवं च ललाटे तु गोविन्दं च भ्रुवोर्न्यसेत्॥७॥

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चक्षुर्मध्ये न्यसेद्विष्णुं कर्णयोर्मधुसूदनम्।

त्रिविक्रमं कण्ठमूले वामनं तु कपोलयोः ॥८॥

नासारन्ध्रद्वये चापि श्रीधरं कल्पयेद्बुधः ।

उत्तरोष्ठे हृषीकेशं पद्मनाभं तथाऽधरे ॥९॥

दामोदरं दन्तपंक्तौ वराहं चिबुके तथा।

जिह्वायां वासुदेवं च ताल्वोश्चैव गदाधरम् ॥१०॥

वैकुण्ठं करमध्ये तु अनन्तं नासिकोपरि।

दक्षिणे तु भुजे विप्रो विन्यसेत्पुरुषोत्तमम् ॥११॥

वामे भुज महायोगिं राघवं हृदि विन्यसेत्।

कुक्षौ पृथ्वीधरं चैव पार्श्वयोः केशवं न्यसेत् ॥१२॥

वक्षःस्थले माधवं च कक्षयोर्भोगशायिनम् ।

पीताम्बरं स्तनतटे हरिं नाभ्यां तु विन्यसेत् ॥१३॥

दक्षिणे तु करे देवं तथा सङ्कर्षणं न्यसेत्।

वामे रिपुहरं विद्यात् कटिमध्ये जनार्दनम् ॥१४॥

पृष्ठे क्षितिधरं विद्यादच्युतं स्कन्धयोरपि।

वामकक्षौ वारिजाक्षं दक्षिणे जलशायिनम् ॥१५॥

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स्वायम्भुवं मेढ्रमध्ये ऊर्वोश्चैव गदाधरम्।

जानुमध्ये चक्रधरं जङ्घयोरमृतं न्यसेत् ॥१६॥

गुल्फयोर्नारसिंहं च पादयोरमृतत्विषम्।

अङ्गुलीषु श्रीधरं च पद्माक्षं सर्वसन्धिषु ॥१७॥

नखेषु माधवं चैव न्यसेत् पादतलेऽच्युतम्।

रोमकूपे गुडाकेशं कृष्णं रक्तास्थिमज्जसु ॥१८॥

मनोबुध्योरहंकारचित्ते न्यस जनार्दनम्।

अच्युतानन्दगोविन्दं वातपित्तकफेषु च ॥१९॥

एवं न्यासविधिं कृत्वा यत्कार्यं द्विजतच्छृणु।

पादमूले तु देवस्य शंखं चैव तु विन्यसेत् ॥२०॥

वनमालां हृदि न्यस्य सर्वदेवादिपूजिताम्।

गदां वक्षस्थले न्यस्य चक्रं चैव पृष्ठतः॥२१॥

श्रीवत्समुरसि न्यस्य पञ्चाङ्गं कवचं न्यसेत्।

आपादमस्तकं चैव विन्यसेत् पुरुषोत्तमम् ॥२२॥

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एवं न्यासविधिं कृत्वा साक्षात् नारायणो भवेत्।

तनुर्विष्णुमयी तस्य यत्किञ्चिन्न स भासते ॥२३॥

अपमार्जनको न्यासः सर्वव्याधिविनाशनः।

आत्मनश्च परस्यापि विधिरेष सनातनः ॥२४॥

वैष्णवेन तु कर्तव्यः सर्वसिद्धिप्रदायकः।

विष्णुस्तदूर्ध्वं रक्षेत्तु वैकुण्ठो विदिशो दिश॥२५॥

पातु मां सर्वतो रामो धन्वी चक्री च केशवः।

एतत्समस्तं विन्यस्य पश्चान्मन्त्रान् प्रयोजयेत् ॥२६॥

अथ मूलमन्त्रः

ओं नमो भगवते क्लेशापहर्त्रे नमः

पूजाकाले तु देवस्य जपकाले तथैव च।

होमकाले च कर्तव्यं त्रिसन्ध्यासु च नित्यशः ॥२७।

आयुरारोग्यमैश्वर्यं ज्ञानं वित्तं फलं लभेत्।

यद्यत् सुखतरं लोके तत्सर्वं प्राप्यते नरैः ॥२८॥

येवं भक्त्या समभ्यर्च्य हरिं सर्वार्थदायकम्।

अभयं सर्वमूर्तेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ॥२९॥

॥ इति श्रीविष्णुधर्मोत्तरपुराणे अपमार्जनकवचं संपूर्णम् ॥

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