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श्री स्तोत्र || Sri Stotram || Sri Stotra
इस वाले श्री स्तोत्र का उल्खेय आपको श्री विष्णु पुराण और अग्नि पुराण में मिल जायेंगा ! बताया जाता है की महात्मा पुष्कर ने परशुराम को बताया है की इस वाले Sri Stotram के कारण भगवान इंद्र जी ने अपने इंदलोक में देवी माँ लक्ष्मी जी से राज्य स्थिर व विजय का वर लिया हैं ! जो भी व्यक्ति श्री स्तोत्र का नियमित रूप से पाठ करता है या सुनता है उसके साथ हमेशा माँ श्री लक्ष्मी जी का आशीर्वाद बना रहा है और वह व्यक्ति सभी भोग पाकर अंत में मोक्ष को प्राप्त होता हैं ! Sri Stotram आदि के बारे में बताने जा रहे हैं !! जय श्री सीताराम !! जय श्री हनुमान !! जय श्री दुर्गा माँ !! यदि आप अपनी कुंडली दिखा कर परामर्श लेना चाहते हो तो या किसी समस्या से निजात पाना चाहते हो तो कॉल करके या नीचे दिए लाइव चैट ( Live Chat ) से चैट करे साथ ही साथ यदि आप जन्मकुंडली, वर्षफल, या लाल किताब कुंडली भी बनवाने हेतु भी सम्पर्क करें : 9667189678 Sri Stotram By Online Specialist Astrologer Sri Hanuman Bhakt Acharya Pandit Lalit Trivedi.
श्री स्तोत्र || Sri Stotram || Sri Stotra
पुष्कर उवाच ।
राज्यलक्ष्मीस्थिरत्वाय यथेन्द्रेण पुरा श्रियः ।
स्तुतिः कृता तथा राजा जयार्थं स्तुतिमाचरेत् ॥१॥
इन्द्र उवाच ।
नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्धिसम्भवां ।
श्रियमुन्निन्द्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थितां ॥२॥
त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनि ।
सन्धया रात्रिः प्रभा भूतिर्म्मेधा श्रद्धा सरस्वती ॥३॥
यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने ।
आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ॥४॥
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आन्वीक्षिकी त्रयी वार्त्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च ।
सौम्या सौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैतद्देवि पूरितं ॥५॥
का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः ।
अध्यास्ते देव देवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः ॥६॥
त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयं ।
विनष्टप्रायमभवत् त्वयेदानीं समेधितं ॥७॥
दाराः पुत्रास्तथागारं सुहृद्धान्यधनादिकं ।
भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान् नृणां ॥८॥
शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखं ।
देवि त्वद्दृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्ल्लभं ॥९॥
त्वमम्बा सर्वभूतानां देवदेवो हरिः पिता ।
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरं ॥१०॥
मानं कोषं तथा कोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदं ।
मा शरीरं कलत्रञ्च त्यजेथाः सर्व्वपावनि ॥११॥
मा पुत्रान्मासुहृद्वर्गान्मा पशून्मा विभूषणं ।
त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षःस्थलालये ॥१२॥
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सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः ।
त्यजन्ते ते नरा सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले ॥१३॥
त्वयावलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः ।
कुलैश्वर्य्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि ॥१४॥
स श्लाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान् ।स शू
रः स च विक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः ॥१५॥सद्यो वै
गुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः ।
पराङ्मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे ॥१६॥
न ते वर्णयितुं शक्ता गुणान् जिह्वापि वेधसः ।
प्रसीद देवि पद्माक्षि नास्मांस्त्याक्षीः कदाचन ॥१७॥
॥ इत्यग्नेये महापुराणे श्रीस्तोत्रं नाम षट्त्रिंशदधिकद्विशततमो ऽध्यायः॥
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