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ब्रह्मा कृत सरस्वती स्तोत्र || Brahma Kruta Saraswati Stotram || Saraswati Stotram

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ब्रह्मा कृत सरस्वती स्तोत्र || Brahma Kruta Saraswati Stotram || Saraswati Stotram

ब्रह्माकृत सरस्वतीस्तोत्रम् के रचियता भगवान श्री ब्रह्मा जी ने की हैं ! Brahma Kruta Saraswati Stotram माँ श्री सरस्वती जी को समर्पित हैं ! ब्रह्माकृत सरस्वतीस्तोत्रम् का पाठ बसंत पंचमी वाले दिन माँ सरस्वती जी की पूजा अर्चना में किया जाता हैं ! इसके साथ साथ Brahma Kruta Saraswati Stotram का पाठ आप नियमित रूप से माँ सरस्वती देवी की पूजा करने में भी कर सकते हैं ! ब्रह्माकृत सरस्वतीस्तोत्रम् का पाठ बच्चो के लिए विशेष रूप से करना फ़ायदेमंद होता हैं ! Brahma Kruta Saraswati Stotram का पाठ करने से बच्चों का दिमाग़ तेज, पढ़ने में होशिहार, सभी कलाओं में विद्वान, स्मरण शक्ति तेज़ होना आदि फ़ायदे होते हैं ! ब्रह्माकृत सरस्वतीस्तोत्रम् आदि फ़ायदे होते हैं !! जय श्री सीताराम !! जय श्री हनुमान !! जय श्री दुर्गा माँ !! यदि आप अपनी कुंडली दिखा कर परामर्श लेना चाहते हो तो या किसी समस्या से निजात पाना चाहते हो तो कॉल करके या नीचे दिए लाइव चैट ( Live Chat ) से चैट करे साथ ही साथ यदि आप जन्मकुंडली, वर्षफल, या लाल किताब कुंडली भी बनवाने हेतु भी सम्पर्क करें : 9667189678 Brahma Kruta Saraswati Stotram By Online Specialist Astrologer Sri Hanuman Bhakt Acharya Pandit Lalit Trivedi.

ब्रह्मा कृत सरस्वती स्तोत्र || Brahma Kruta Saraswati Stotram || Saraswati Stotram

ऊँ अस्य श्रीसरस्वतीस्तोत्रमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः।

गायत्री छन्दः।

श्रीसरस्वती देवता।

धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः

आरूढा श्वेतहंसे भ्रमति च गगने दक्षिणे चाक्षसूत्रं,

वामे हस्ते च दिव्याम्बरकनकमयं पुस्तकं ज्ञानगम्या।

सा वीणां वादयन्ती स्वकरकरजपैः शास्त्रविज्ञानशब्दैः,

क्रीडन्ती दिव्यरूपा करकमलधरा भारती सुप्रसन्ना॥१॥

श्वेतपद्मासना देवी श्वेतगन्धानुलेपना।

अर्चिता मुनिभिः सर्वैः ऋषिभिः स्तूयते सदा।

एवं ध्यात्वा सदा देवीं वाञ्छितं लभते नरः ॥२॥

शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीं,

वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।

हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां,

वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥३॥

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,

या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।

या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता,

सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥४॥

ह्रीं ह्रीं हृद्यैकबीजे शशिरुचिकमले कल्पविस्पष्टशोभे,

भव्ये भव्यानुकूले कुमतिवनदवे विश्ववन्द्याङ्घ्रिपद्मे।

पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणतजनमनोमोदसंपादयित्रि,

प्रोत्फुल्लज्ञानकूटे हरिनिजदयिते देवि संसारसारे॥५॥

ऐं ऐं ऐं इन्ष्टमन्त्रे कमलभवमुखाम्भोजभूतिस्वरूपे,

रूपारूपप्रकाशे सकलगुणमये निर्गुणे निर्विकारे।

न स्थूले नैव सूक्ष्मेऽप्यविदितविषये नापि विज्ञाततत्त्वे,

विश्वे विश्वान्तरात्मे सुरवरनमिते निष्कले नित्यशुद्धे ॥६॥

ह्रीं ह्रीं ह्रीं जाप्यतुष्टे हिमरुचिमुकुटे वल्लकीव्यग्रहस्ते,

मातर्मातर्नमस्ते दह दह जडतां देहि बुद्धिं प्रशस्तां।

विद्यां वेदान्तवेद्यां परिणतपठिते मोक्षदे मुक्तिमार्गे,

मार्गातीतप्रभावे भव मम वरदा शारदे शुभ्रहारे ॥७॥

धीर्धीर्धीर्धारणाख्ये धृतिमतिनतिभिर्नामभिः कीर्तनीये,

नित्येऽनित्ये निमित्ते मुनिगणनमिते नूतने वै पुराणे।

पुण्ये पुण्यप्रवाहे हरिहरनमिते नित्यशुद्धे सुवर्णे,

मातर्मात्रार्धतत्त्वे मतिमतिमतिदे माधवप्रीतिमोदे॥८॥

ह्रूं ह्रूं ह्रूं स्वस्वरूपे दह दह दुरितं पुस्तकव्यग्रहस्ते,

सन्तुष्टाकारचित्ते स्मितमुखि सुभगे जृम्भिणि स्तम्भविद्ये।

मोहे मुग्धप्रभावे कुरु मम कुमतिध्वान्तविध्वंसमीड्ये,

गीर्गीर्वाग्भारती त्वं कविवररसनासिद्धिदे सिद्धसाध्ये ॥९॥

स्तौमि त्वां त्वां च वन्दे मम खलु रसनां मा कदाचित्त्यजेथा,

मा मे बुद्धिर्विरुद्धा भवतु न च मनो देवि मे यातु पापम्।

मा मे दुःखं कदाचित् क्वचिदपि विषयेऽप्यस्तु मे नाकुलत्वं,

शास्त्री वादे कवित्वे प्रसरतु मम धीर्मास्तु कुण्ठा कदापि॥१०॥

इत्येतैः श्लोकमुख्यैः प्रतिदिनमुषसि स्तौति यो भक्तिनम्रो,

वाणी वाचस्पतेरप्यविदितविभवो वाक्पटुर्मुष्टकण्ठः।

स स्यादिष्टार्थलाभैः सुतमिव सततं पाति तं सा च देवी,

सौभाग्यं तस्य लोके प्रभवति कविता विघ्नमस्तं प्रयाति॥११॥

निर्विघ्नं तस्य विद्या प्रभवति सततं चाश्रुतग्रन्थबोधः,

कीर्तिस्त्रैलोक्यमध्ये निवसति वदने शारदा तस्य साक्षात्।

दीर्घायुर्लोकपूज्यः सकलगुणनिधिः सन्ततं राजमान्यो,

वाग्देव्याः संप्रसादात् त्रिजगति विजयी जायते सत्सभासु॥१२॥

ब्रह्मचारी व्रती मौनी त्रयोदश्यां निरामिषः।

सारस्वतो जनः पाठात् सकृदिष्टार्थलाभवान् ॥१३॥

पक्षद्वये त्रयोदश्यामेकविंशतिसंख्यया ।

अविच्छिन्नः पठेद्धीमान् ध्यात्वा देवीं सरस्वतीम् ॥१४॥

सर्वपापविनिर्मुक्तः सुभगो लोकविश्रुतः।

वाञ्छितं फलमाप्नोति लोकेऽस्मिन्नात्र संशयः ॥१५॥

ब्रह्मणेति स्वयं प्रोक्तं सरस्वत्याः स्तवं शुभम्।

प्रयत्नेन पठेन्नित्यं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥१६॥

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