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निर्गुण मानस पूजा || Nirguna Manasa Puja || Nirguna Manasa Pooja

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शिष्य उवाच

अखण्डे सच्चिदानन्दे निर्विकल्पैकरूपिणि।

स्थितेऽद्वितीयभावेऽपि कथं पूजा विधीयते ॥१॥

पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम्।

स्वच्छस्य पाद्यमर्घ्यं च शुद्धस्याचमनं कुतः ॥२॥

निर्मलस्य कुतः स्नानं वासो विश्वोदरस्य च।

अगोत्रस्य त्ववर्णस्य कुतस्तस्योपवीतकम्॥३॥

निर्लेपस्य कुतो गन्धः पुष्पं निर्वासनस्य च।

निर्विशेषस्य का भूषा कोऽलङ्कारो निराकृतेः॥४॥

निरञ्जनस्य किं धूपैः दीपैर्वा सर्वसाक्षिणः ।

निजानन्दैकतृप्तस्य नैवेद्यं किं भवेदिह ॥५॥

विश्वानन्दयितुस्तस्य किं ताम्बूलं प्रकल्प्यते।

स्वयंप्रकाशचिद्रूपो योऽसावर्कादिभासकः ॥६॥

गीयते श्रुतिभिस्तस्य नीराजनविधिः कुतः।

प्रदक्षिणमनन्तस्य प्रणामोऽद्वयवस्तुनः॥७॥

वेदवाचामवेद्यस्य किं वा स्तोत्रं विधीयते।

अन्तर्बहिः संस्थितस्योद्वासनविधिः कुतः ॥८॥

गुरुरुवाच।

आराधयामि मणिसंनिभमात्मलिङ्गं मायापुरीहृदयपङ्कजसंनिविष्टम्  ।

श्रद्धानदीविमलचित्तजलाभिषेकैः नित्यं समाधिकुसुमैर्नपुनर्भवाय ॥९॥

अयमेकोऽवशिष्टोऽस्मीत्येवमावाहयेच्छिवम् आसनं कल्पयेत्पश्चात्स्वप्रतिष्ठात्मचिन्तनम् ॥१०॥

पुण्यपापरजःसङ्गो मम नास्तीति वेदनम्।

पाद्यं समर्पयेद्विद्वन्सर्वकल्मषनाशनम् ॥११॥

अनादिकल्पविधृतमूलाज्ञानजलाञ्जलिम्।

विसृजेदात्मलिङ्गस्य तदेवार्घ्यसमर्पणम् ॥१२॥

ब्रह्मानन्दाब्धिकल्लोलकणकोट्यंशलेशकम्।

पिबन्तीन्द्रादय इति ध्यानमाचमनं मतम् ॥१३॥

ब्रह्मानन्दजलेनैव लोकाः सर्वे परिप्लुताः।

अच्छेद्योऽयमिति ध्यानमभिषेचनमात्मनः ॥१४॥

निरावरणचैतन्यं प्रकाशोऽस्मीति चिन्तनम्।

आत्मलिङ्गस्य सद्वस्त्रमित्येवं चिन्तयेन्मुनिः ॥१५॥

त्रिगुणात्माशेषलोकमालिकासूत्रमस्म्यहम्।

इति निश्चयमेवात्र ह्युपवीतं परं मतम्॥१६॥

अनेकवासनामिश्रप्रपञ्चोऽयं धृतो मया।

नान्येनेत्यनुसन्धानमात्मनश्चन्दनं भवेत् ॥१७॥

रजः सत्त्वतमोवृत्तित्यागरूपैस्तिलाक्षतैः।

आत्मलिङ्गं यजेन्नित्यं जीवन्मुक्तिप्रसिद्धये ॥१८॥

ईश्वरो गुरुरात्मेति भेदत्रयविवर्जितैः।

बिल्वपत्रैरद्वितीयैरात्मलिङ्गं यजेच्छिवम् ॥१९॥

समस्तवासनात्यागं धूपं तस्य विचिन्तयेत्।

ज्योतिर्मयात्मविज्ञानं दीपं सन्दर्शयेद्बुधः ॥२०॥

नैवेद्यमात्मलिङ्गस्य ब्रह्माण्डाख्यं महोदनम्।

पिबानन्दरसं स्वादु मृत्युरस्योपसेचनम् ॥२१॥

अज्ञानोच्छिष्टकरस्य क्षालनं ज्ञानवारिणा।

विशुद्धस्यात्मलिङ्गस्य हस्तप्रक्षालनं स्मरेत् ॥२२॥

रागादिगुणशून्यस्य शिवस्य परमात्मनः।

सरागविषयाभ्यासत्यागस्ताम्बूलचर्वणम्॥२३॥

अज्ञानध्वान्तविध्वंसप्रचण्डमतिभास्करम्।

आत्मनो ब्रह्मताज्ञानं नीराजनमिहात्मनः ॥२४॥

विविधब्रह्मसंदृष्टिर्मालिकाभिरलङ्कृतम्।

पूर्णानन्दात्मतादृष्टिं पुष्पाञ्जलिमनुस्मरेत् ॥२५॥

परिभ्रमन्ति ब्रह्माण्डसहस्राणि मयीश्वरे।

कूटस्थाचलरूपोऽहमिति ध्यानं प्रदक्षिणम् ॥२६॥

विश्ववन्द्योऽहमेवास्मि नास्ति वन्द्यो मदन्यतः।

इत्यालोचनमेवात्र स्वात्मलिङ्गस्य वन्दनम् ॥२७॥

आत्मनः सत्क्रिया प्रोक्ता कर्तव्याभावभावना।

नामरूपव्यतीतात्मचिन्तनं नामकीर्तनम् ॥२८॥

श्रवणं तस्य देवस्य श्रोतव्याभावचिन्तनम्।

मननं त्वात्मलिङ्गस्य मन्तव्याभावचिन्तनम् ॥२९॥

धातव्याभावविज्ञानं निदिध्यासनमात्मनः।

समस्तभ्रान्तिविक्षेपराहित्येनात्मनिष्ठता ॥३०॥

समाधिरात्मनो नाम नान्यच्चितस्य विभ्रमः।

तत्रैव ब्रह्मणि सदा चित्तविश्रान्तिरिष्यते ॥३१॥

एवं वेदान्तकल्पोक्तस्वात्मलिङ्गप्रपूजनम्।

कुर्वन्नामरणं वापि क्षणं वा सुसमाहितः ॥३२॥

सर्वदुर्वासनाजालं  पदपांसुमिव त्यजेत्।

विधूयाज्ञानदुःखौघं मोक्षानन्दं समश्नुते ॥३३॥

॥ इति श्रीमच्छङ्करभगवत्पादविरचिता निर्गुणमानसपूजा समाप्ता ॥

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